आशिकी प्रेम पतिया
ज्यादा वक़्त नहीं गुजरा जब आशिक बड़ी मोहब्बत से
ख़त लिखा करते थे। नया नवेला आशिकी प्रेम पत्र को
रोमांटिक बनाने के लिए हिंदी लिट्रेचर में डुबकी लगाया
करता था। ग़ालिब से लेकर मीर तक कि शायरी के
दरिया में तैर जाया करता था। कुछ जुनूनी क़िस्म के
पागल प्रेमी लहू कि लाल स्याही से मोहब्बत का पैगाम
लिखा करते थे।
आशिक के रकीब यानि प्रेमिका के बाकी प्रेमी भी इसी
ख़तनुमा आइटम के जरिये उसे ठिकाने लगाने कि
कोशिश करते थे। वो आशिक के नाम से गलीयों का
ख़त प्रेमिका के घर पर टपका आते हालाँकि लड़की के
घर वाले यह जानते थे कि ये ख़त उस लड़के ने नहीं
लिखा, जिसके नाम से भेजा गया। लेकिन घर वालों कि
प्रतिबन्धित सूचि मेंआशिक का नाम आना तय हो
जाता है। लड़किया प्रेम पत्र नहीं लिखती थी इस बात के
इतिहास में सबूत नहीं अलबत्ता ज्यादा तर अपने नाम
से नहीं लिखा करती थी और बहुत विश्वाशपात्र
सहेलिया ही उनके खतों की पोस्टमैन होती थी।
लेकिन बात गुज़रे ज़माने कि नहीं गुजरते ज़माने कि है।
sms का तूफ़ान कम्बखत मोहब्बत कि इस परंपरा को
उजाड़ गया। स्कूली sms मुहब्ब्त की गाडी कई बार
'बैलेंस 'के झँझट में पटरी से उतर जाती है।
अनपढ़ से अनपढ़ टपोरी आशिक के पास भी मोबाइल
नामक ये यंत्र है। जिससे भेजे sms से समझ नहीं आता
कि किस केटेगरी का आशिक है। भोंदू-नादान-चिरकुट-
रक्तप्रिय..........किस टाइप का एक ही sms फॉरवर्ड हो
हो कर इतनी बार महबूब के पास पहुचता है कि पता
नहीं चलता कि sms में व्यक्त भावनाए रामू की है या
श्यामू की।
हालाँकि मोबाइल ने लड़कियों को भी सुविधा दी है कि
वो आँखों के तीर से घायल हुए तमाम परिंदों को sms का
चारा डालकर लपेट ले। लुटे -पिटे आशिकों के शोध
बताते है कि एक महीने तक मुफ्त का सेवक पाकर तर्र
हुआ छोरा एक महीने तक मुफ्त का सेवक होता है।
दुहने के बाद गाय को पता चलता है कि ढूढ़ -मलाई
-मक्खन और घी सब कुछ कोई और खा गया है, तो वो
उस प्राणप्रिय sms को डिलीट कर नए सिरे से कोशिश में
जुट जाता है।
कंफ्युसन के बावजूद sms पर रोमांस धड़ल्ले से जारी है।
सर्वे बता रहे है कि दफ्तरों में रोमांस अब मोबाइल के
बिना दम तोड़ देंगे। कालेजो में भी बीप-बीप की
चहचाहा हट कयिओं की मुहब्बत ज़िंदा रखे है।
sms धर्म -निरपेक्ष भाव से इंस्टेंट प्यार करने वाली
बिरादरी कि सेवा कर रहे है।
लेकिन इस smsi मुहब्बत के युग में भी कुछ मजनू
अपनी लैला को प्यार कि पाति लिखे बिना बाज़ नहीं
आते। उन्हें न जाने क्यों ढाई आखर प्रेम के हाथ से
लिखने में हीं आनंद आना है नयी पीढ़ी उन्हें 'बैकवर्ड '
कहते हुए ताना कस्ती है 'मजनू है न '.